करोड़ों खर्च, निवेश नदारद, क्या मध्यप्रदेश में विकास सिर्फ़ सम्मेलनों तक सिमट गया है?



--विजया पाठक
एडिटर - जगत‍ विजन
भोपाल - मध्यप्रदेश, इंडिया इनसाइड न्यूज।

■निवेश के नाम पर आयोजन, ज़मीन पर सन्नाटा, यही है मध्यप्रदेश में इन्वेस्टर्स समिट की हकीकत

■एमओयू से एमपी ग्रोथ समिट तक: निवेश के दावों और जनता के टैक्स के बीच सवालों का सिलसिला जारी

■मध्यप्रदेश में निवेश के दावों और ज़मीनी हकीकत के बीच चल रहा करोड़ों रुपए का बंदरबाट

मध्यप्रदेश में निवेश और औद्योगिक विकास को लेकर सरकार के दावे इन दिनों राजनीतिक और सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में हैं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में आयोजित रीजनल इन्वेस्टर्स समिट, ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस) और अब प्रस्तावित “एमपी ग्रोथ समिट” को लेकर एक ओर सरकार बड़े पैमाने पर निवेश, रोजगार और विकास की बात कर रही है, वहीं दूसरी ओर आलोचक इन आयोजनों की वास्तविक उपलब्धियों पर सवाल खड़े कर रहे हैं। यह आलेख इन्हीं सवालों, दावों और आशंकाओं का विश्लेषण करने का प्रयास है। सरकारी मंचों से यह बताया गया कि अब तक राज्य में 06 रीजनल इन्वेस्टर्स समिट आयोजित की जा चुकी हैं, जिनमें बड़े पैमाने पर निवेश प्रस्ताव प्राप्त हुए। सरकार का तर्क है कि इन आयोजनों ने मध्यप्रदेश को निवेशकों के नक्शे पर मजबूती से स्थापित किया है। परंतु आलोचकों का कहना है कि निवेश प्रस्तावों और वास्तविक निवेश के बीच एक गहरी खाई दिखाई देती है। उनका दावा है कि आयोजनों पर लगभग 187 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जबकि ज़मीन पर दिखाई देने वाला निवेश अभी तक बेहद सीमित है।

● संदेह पैदा होना स्वाभाविक है

यहीं से सवाल उठता है क्या निवेश प्रस्ताव और निवेश के बीच फर्क को जनता के सामने पूरी पारदर्शिता के साथ रखा जा रहा है? निवेश प्रस्ताव (एमओयू) अक्सर शुरुआती सहमति होते हैं, जिनका ज़मीन पर उतरना कई प्रक्रियाओं, अनुमतियों और व्यावसायिक निर्णयों पर निर्भर करता है। लेकिन जब लंबे समय तक बड़े-बड़े आयोजनों के बावजूद औद्योगिक इकाइयां, उत्पादन और रोजगार स्पष्ट रूप से न दिखें, तो संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस) को लेकर भी ऐसे ही प्रश्न उठाए जा रहे हैं। आलोचकों का कहना है कि जीआईएस में करोड़ों रुपये खर्च हुए, देश-विदेश के प्रतिनिधि आए, मंच सजे, प्रस्तुतियां हुईं, लेकिन आम जनता के जीवन में उस निवेश का प्रत्यक्ष असर दिखाई नहीं देता। सवाल यह नहीं है कि आयोजन क्यों किए गए, बल्कि यह है कि इन आयोजनों से निकले वादों की निगरानी और क्रियान्वयन का तंत्र कितना प्रभावी है।

● तर्क आंशिक रूप से सही भी है

सरकार का पक्ष यह हो सकता है कि निवेश एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है और इसके परिणाम रातों-रात नहीं दिखते। यह तर्क आंशिक रूप से सही भी है। परंतु आलोचक पूछते हैं कि यदि ऐसा है, तो फिर हर कुछ महीनों में नए नाम से निवेश सम्मेलन क्यों? “रीजनल इन्वेस्टर्स समिट”, “ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट” के बाद अब “एमपी ग्रोथ समिट” क्या यह निरंतरता विकास की है या फिर आयोजन केंद्रित नीति का संकेत? राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि निवेश सम्मेलनों का एक प्रतीकात्मक महत्व भी होता है। वे राज्य की छवि गढ़ने, निवेशकों का ध्यान आकर्षित करने और राजनीतिक संदेश देने का माध्यम बनते हैं। लेकिन जब प्रतीकात्मकता वास्तविकता पर भारी पड़ने लगे, तब लोकतांत्रिक व्यवस्था में सवाल उठना जरूरी हो जाता है। जनता का पैसा आखिर किन प्राथमिकताओं पर खर्च हो रहा है। यह प्रश्न किसी भी सरकार के लिए असहज नहीं, बल्कि आवश्यक होना चाहिए।

● अनावश्यक आरोपों को भी स्वतः कमजोर कर देती है

आलोचकों द्वारा उठाया गया एक और गंभीर सवाल यह है कि क्या इन आयोजनों की स्वतंत्र ऑडिट और सार्वजनिक समीक्षा हो रही है? यदि वाकई निवेश प्रस्तावों का बड़ा हिस्सा ज़मीन पर उतर चुका है या उतरने की प्रक्रिया में है, तो सरकार को आंकड़ों, परियोजनाओं की सूची और रोजगार के आंकड़ों के साथ सामने आना चाहिए। पारदर्शिता न केवल सरकार के पक्ष को मजबूत करती है, बल्कि अनावश्यक आरोपों को भी स्वतः कमजोर कर देती है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव पर सीधा आरोप लगाने से पहले यह भी समझना जरूरी है कि निवेश नीति केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं होती। यह पूरी शासन-प्रशासनिक मशीनरी, औद्योगिक विभाग, स्थानीय प्रशासन और केंद्र-राज्य समन्वय से जुड़ा विषय है। फिर भी, मुख्यमंत्री होने के नाते राजनीतिक और नैतिक जिम्मेदारी अंततः उन्हीं पर आती है। यही कारण है कि सवालों की दिशा भी उन्हीं की ओर जाती है। “क्या यह सब जनता के टैक्स के पैसे से खेल है?” यह प्रश्न भावनात्मक भी है और राजनीतिक भी। यदि जनता को लगे कि उनके पैसे का उपयोग केवल आयोजनों, मंचों और प्रचार तक सीमित है, तो असंतोष बढ़ना तय है। वहीं यदि सरकार ठोस उदाहरणों के साथ यह दिखा पाए कि निवेश के परिणामस्वरूप नए उद्योग, स्थानीय रोजगार और क्षेत्रीय विकास हो रहा है, तो यही सवाल प्रशंसा में बदल सकते हैं।

● आलोचक इसे पुराने ढर्रे का विस्तार बता रहे

अब “एमपी ग्रोथ समिट” की घोषणा के साथ यह बहस और तेज हो गई है। समर्थक इसे नई ऊर्जा और नई दिशा का संकेत मान रहे हैं, जबकि आलोचक इसे पुराने ढर्रे का विस्तार बता रहे हैं। सच क्या है, यह आने वाला समय बताएगा। लेकिन इतना तय है कि निवेश के नाम पर होने वाले हर आयोजन को अब केवल घोषणाओं से नहीं, बल्कि परिणामों से आंका जाएगा। अंततः लोकतंत्र में सबसे बड़ा निवेश जनता का भरोसा होता है। यदि यह भरोसा मजबूत रहा, तो नीतियां भी सफल होंगी। और यदि इसमें दरार आई, तो सबसे बड़े सम्मेलन भी उसे भर नहीं पाएंगे। इसलिए सवाल पूछना, जवाब मांगना और पारदर्शिता की अपेक्षा करना न तो विरोध है, न ही नकारात्मकता यह लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। अब यह सरकार पर निर्भर है कि वह इन सवालों का जवाब कैसे देती है आयोजनों से या उपलब्धियों से।

https://www.indiainside.org/post.php?id=10366