छठ की महिमा, जो डूबता है वह उगता भी है



--अभिजीत पाण्डेय (ब्यूरो),
पटना-बिहार, इंडिया इनसाइड न्यूज़।

लोक आस्था हमेशा विज्ञान पर भारी पड़ती है। छठ की फिलासफी भी यही है कि जिसे लोक जीवन की स्वीकृति मिल जाए, वही सच है। विज्ञान कहता है, सूर्य स्थिर है और धरती उसकी परिक्रमा करती है। सूर्य न डूबता है और न उगता है। जबकि लोक आस्था है कि सूर्य चलते-चलते थक कर संध्या बेला में अस्त होता है और फिर सुबह में उसका उदय होता है। यानी, जो डूबता है, वह उगता भी है। इसी डूबते और उगते सूर्य की उपासना का पर्व है छठ। सदियां गुजर गयीं पर इस आस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया, न आएगा।

जमाना चाहे जितना भी आधुनिक और वैज्ञानिक हो जाए पर आस्था अपरिवर्तनीय रहती है। इसी सनातन सच की आवृत्ति है छठ। आधुनिक जीवन शैली का प्रवेश हुआ और बहुत कुछ बदल गया, किन्तु छठ में कोई बदलाव नहीं आया। हमारी आस्था हर वर्ष बढ़ती ही जाती है। समूह के सहयोग से किया जानेवाला यह पर्व हर तरह के आडंबर और तामझाम से मुक्त है। न पंडित की आवश्यकता पड़ती और न पुरोहित की। इसका कोई मंत्र भी नहीं। है तो सिर्फ वह मजबूत आस्था जो पूरे समाज के रग-रग में व्याप्त है।

प्रकृति परिवर्तनीय है। परिवर्तन रुक जाए तो सृष्टि नहीं बचेगी। मानव जीवन में जो हारना नहीं जानता वह जीत की ऊंचाई हासिल नहीं कर सकता। जीतने के लिए हारना भी जरूरी है। लंबी छलांग लगाने के लिए कुछ कदम पीछे हटना पड़ता है। डूबता और उगता सूर्य यही संदेश देता है। यही कारण है कि इस पर्व पर पश्चिम दिशा में डूबते सूर्य और दूसरी सुबह पूरब के आकाश में उगते भास्कर को अर्ध्य देकर सृष्टि की इस सच्चाई को समूह द्वारा स्वीकार किया जाता है कि सूर्य के अस्त होने के साथ जो काली रात आती है, वह स्थायी नहीं। सूबह में सूर्य की लालिमा जैसे ही फैलती है, चारों ओर उजाले का साम्राज्य फिर से कायम हो जाता है। छठ की लोक आस्था में मानव जीवन की बड़ी फिलासफी ध्वनित है।

आज आत्मनिर्भर भारत का सरकारी स्तर पर जो संदेश दिया जा रहा है, वह सदियों से इस पर्व का मुख्य सामाजिक और आर्थिक दर्शन रहा है। यह लोक जीवन का एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी भी आयातित वस्तु का उपयोग नहीं होता। इस बार भी घर से घाट तक देख लें, कहीं भी कोई ऐसी वस्तु नहीं दिखेगी जो विदेशों की बनी हो। खुद से बनाये गये मिट्टी के चूल्हे, खेतों में उपजे फल-सब्जी, ग्रामीण शिल्पियों द्वारा बांस की कमाचियों से बनाए गए सूप-दउरे, घर या गांव की चक्की पर पिसा गया आटा, गाय का दूध, गुड़ की बनी खीर और अन्य प्रसाद, ये सब कुछ स्वदेशी हैं और ग्रामीण अर्थशास्त्र में आत्मनिर्भरता का संदेश देते हैं।

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