रोइए ना जार-जार !



जिस तरह से पाक मीडिया, वहाँ के हुक्मरान चीखपुकार मचाये हैं, उससे लगता है कि यह ‘आपरेशन’ बेहद ज़रूरी था। जिन्हें ना तो संविधान की जानकारी है, ना वहाँ की जनता के दु:खों का एहसास और ना ही कश्मीर के मामले में देश के अधिकार की जानकारी; वे ही अनाप-शनाप बक रहे हैं।

लोगों को हैरत नहीं होती कि कल से पाक मीडिया और वहाँ के राजनीतिक दल जिस तरह से बार-बार ख़ुद को ‘न्युक्लियर-देश’ कह कर चिचिया रहे हैं, उससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वहाँ कश्मीरी अलगाववादियों और पाक के बीच असल जनता कैसे पिसती रही है।

जर्द हो चुके नूरानी चेहरे पर चमक लौटेगी कैसे, इस बावत चर्चा होनी चाहिए। उन्हें घाटी में बदलाव के लिए सरकार को निरन्तर दबाव में रखने की रणनीति पर काम करना चाहिए। जो काला दिवस मना रहे हैं उन्होंने अब तक किया क्या ? जिन्हें वहाँ की जनता की चिन्ता है। क्या कोई एक भी ऐसा उदाहरण दे सकता है कि वह वहाँ की आम आवाम को इस फ़ैसले से कष्ट हुआ ? क्या वहाँ के किसी भी एक आम आदमी के हवाले से यह बात तस्दीक़ की जा सकती है?

मैं कुछ दिन के लिए, लगभग छह साल पहले, श्रीनगर रहा। तब उससे पहले कश्मीर में भयानक बाढ़ आई थी। हम उसके कुछ समय बाद पर्यावरण पर होने वाली एक कार्यशाला में शामिल हुए और वहाँ के रिमोट क्षेत्रों का दौरा भी किया था। हमने देखा कि वहाँ की आम जनता आजिज़ आ गई है। मैंने कई लोगों से निजी बातों में जाना कि वे किसी भी हाल में ना तो भारत और ना ही पाक के साथ जाना चाहते हैं। वहाँ बहुतों ने तब स्वीकार किया था कि भारत के साथ जाने का ख़तरा यह है कि आतंकी उन्हें नहीं बख्शेंगे क्योंकि तब की सरकारों पर उनका भरोसा नहीं था। हाँ, उन्हें भारतीय फ़ौज से भी कुछ शिकायतें रहीं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय सेना की भी अपनी कुछ सीमाएँ रही हैं। वे पत्थर मारे जा रहे थे। गालियाँ खा रहे थे। उनकी जान हमेशा जोखिम में रहती है वहाँ। आतंकी और अलगाववादी वहाँ की जनता को कवच के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं।

घाटी को पाक-परस्तों ने नर्क बना दिया था जो इधर भी हैं और उधर भी।यासीन मलिक जैसे लोगों को तो कब का सही कर दिया जाना चाहिए था।
धारा 370 का विरोध इसलिए हो रहा है कि वहाँ आपकी विचारधारा वाली सरकार नहीं है या इसलिए कि विरोध करने वालों को कश्मीर की वाक़ई चिन्ता है? कुछ लोग कह रहे हैं कि केंद्र सरकार ज़रूरी मुद्दों से देश का ध्यान भटकाने के लिए ऐसा कर रही है।

.....भाई मेरे! आप भटक भी रहे हैं और अकसर ऐसा ही हो रहा है। वे तो सफल हो रहे हैं अपने मिशन में। आप कोसते रहिए फ़ेसबुक पर। गरीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, मिलावट, पर्यावरण, किसानों आदि जैसे मुद्दे पर कितने आन्दोलन आप चला रहे हैं?

मुझे पक्का यक़ीन है कि जो लोग नल का बहता हुआ पानी छोड़ देते हैं, दस रुपये की चुरकटई करते हैं, कूड़े वाले का पैसा मार लेते हैं, बिजली का मीटर सुस्त कर देते हैं, सड़कों पर चलते-चलते कहीं भी थूक देते, अपने घर का कूड़ा अपनी ही नाली में डाले देने जैसी बातों को सामान्य मानते हैं; वे भी अपने को संविधान विशेषज्ञ मानकर कश्मीर समस्या का समाधान देते हुए लोकतंत्र की हत्या पर आज जार-जार रो रहे हैं।

याद रखिए; आप संसद से खतम हैं, देश से नहीं। केन्द्र की पिटारी में अभी ना जाने ऐसे कितने मुद्दे हैं।

यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास की बहुत सी घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी बहुधा सटीक नहीं होती। उसके निहितार्थ तो निकाले जा सकते हैं पर अर्थ बहुत बाद में निकलता है। फ़ैसला जो भी हो कश्मीर के आवाम का भरोसा ना टूटने पाये। उनके कन्धे से कन्धा लगाये रखिए हर हाल में !

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