● रामनगीना मौर्या
सुबह-सुबह उसकी पत्नी के पेट में मरोड़ के साथ तेज दर्द उठा था, फिर शान्त हो गया। उसे ध्यान आया कि डॉक्टरनी जी ने कहा था, ‘नवां महीना चल रहा है, रात-बिरात जब भी दर्द उठे, इन्हें अस्पताल ले आइयेगा।’
डॉक्टरनी जी की हिदायत का ध्यान आते ही उसने सोचा, यदि दर्द बढ़ गया तो, अस्पताल ले जाने में दिक्कत हो सकती है। उसने शहर में ही रह रहे स्वजनों को फोन किया। फौरन फटफटिया निकाली। जरूरी दवाइयांॅ, जो भी पैसे घर में थे, उन्हें अपनी जेब के हवाले करते, आवश्यक कपड़े-लत्ते इत्यादि डिग्गी में रखते, पत्नी को फटफटिया पर संभालकर बिठाते, दोनों अस्पताल की ओर भागे।
उस समय सुबह के लगभग सात बजे होंगे। अस्पताल में रिसेप्शन पर डॉक्टरनी जी के बारे में पूछने पर जानकारी हुई कि अभी डॉक्टर सौम्या उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन रिसेप्शन पर बैठे क्लर्क ने मरीज की हालत देखते, डॉक्टर सौम्या से फोन पर बात की, और कुछ कागजी औपचारिकताओं के बाद तत्काल उसकी पत्नी को एडमिट कर लिया। चंूॅकि दर्द रह-रहकर बढ़ता ही जा रहा था, सो अगले ही पल मौंके पर मौजूद डॉक्टर, स्टॉफ-नर्स आदि, उसकी पत्नी को लेबर-रूम की ओर लेकर भागे।
पत्नी के लेबर-रूम में जाने के बाद, वो वहीं बरामदे में पड़ी बेंच पर बैठे-बैठे, अपने बच्चे की किलकारी सुनने, पत्नी के बाहर निकलने का बेचैनी से इन्तजार करने लगा। उसे रह-रह कर पत्नी का दर्द से कराहता चेहरा याद आ जाता, तो कभी आने वाले बच्चे के बारे में सोच-सोच कर उसका मन आह्लादित हो उठता।
‘‘ये पर्ची लीजिए, और इसमें लिखी दवाइयांॅ जल्दी खरीद कर ले आइये।’’ पीछे से नर्स ने आकर एक पर्ची पकड़ाते उसकी तन्द्रा भंग की। उसने देखा, पर्ची में कुछ दवाइयांॅ और इन्जेक्शन आदि लिखे थे। वो पर्ची लेकर झट, अस्पताल परिसर में ही स्थित मेडिकल-स्टोर से दवाइयांॅ और इन्जेक्शन आदि खरीदते, पैकेट सहित नर्स को पकड़ाने के बाद, लेबर-रूम के बाहर पड़ी बेंच पर वापस बैठते, पत्नी के बाहर निकलने का इन्तजार करने लगा।
आसन्न-प्रसवा पत्नी की पीड़ा को महसूस करते उसे अपने छोटे, जुड़वा भाई-बहनों की पैदायश का दिन-समय याद आ गया, जिसकी यादें उसके जेहन में अभी भी ताजा हैं।
उसे याद है, उस समय वो पांचवीं कक्षा में पढ़ता था। उसकी उम्र लगभग नौ-दस साल रही होगी। तिजहरिया का समय था। वो अभी स्कूल से लौटा ही था। उस समय तक बड़े भाई स्कूल से नहीं लौटे थे। बहनें काफी छोटी थीं, जो शायद कहीं खेलने में व्यस्त थीं या दूसरे कमरे में सो रहीं थीं। पिता जी घर पर नहीं थे, वो अपने भतीजे की शादी में शामिल होने वास्ते गांॅव गये थे, और उसी दिन लौटने वाले थे।
स्कूल से लौटकर, जैसा कि उसकी आदत थी, बस्ता इधर-उधर फेंकते, अपने पैण्ट की दोनों जेबों में एक-एक मुट्ठी शक्कर भरते, वो अपने दोस्तों संग गुल्ली-डण्डा खेलने के लिए घर से निकलने ही वाला था कि अम्मा ने अंदर कमरे से उसे आवाज दी। अम्मा की आवाज सुनकर जब वो कमरे में पहुंॅचा तो देखा, अम्मा बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं। उसे देखते ही अम्मा ने उसका सहारा लेकर बिस्तर से उठते हुए, उससे आंॅगन स्थित बाथरूम की ओर ले चलने के लिए कहा। बॉथरूम जाने के बाद, दरवाजा खुला ही रखने की हिदायत देते अम्मा ने उसे पड़ोस में ही रहने वाले उसके दोस्त लल्ला की दादी जी को जल्दी बुलाने के लिए कहा।
उसे याद है, उसके दोस्त लल्ला की दादी जी के बाल एकदम चांॅदी की तरह सफेद थे। लल्ला के साथ, कॉलोनी के सभी बच्चे भी उन्हें ‘दादी जी’ ही कह कर पुकारते। दादी जी के मुंॅह में दांॅत नहीं थे, वे हमेंशा अपना मुंॅह चलाती रहतीं थीं, और घर में सामने वाले कमरे में बैठी, लल्ला की शैतानियों पर बराबर कड़ी नजर रखतीं थीं।
वो भागा-भागा अपने पड़ोसी दोस्त लल्ला के घर पहुंॅचा। लल्ला घर पर नहीं था। दरवाजा दादी जी ने ही खोला।
‘‘लल्ला, अपने पापा के साथ बाजार गया है। अभी जाओ। जब देखो, चले आते हो मुंॅह उठाए। हमेंशा तुम्हारा मन खेलने में ही लगा रहता है। कभी पढ़ते-लिखते भी हो, या दिन-भर सिर्फ आवारागर्दी ही करते रहते हो? बेवकूफ कहीं के?’’ ये कहते, दादी जी ने उसे दरवाजे से ही टरकाना चाहा।
‘‘दादी जी, लल्ला से तो मेरी, एक हफ्ते पहले से ही कुट्टी चल रही है।’’ चेहरे पर दयनीयता लाते, अपनी जान उसने अत्यन्त मासूमियत से कहा था।
‘‘क्यों भला...?’’ दादी ने आंॅखें तरेरते पूछा।
‘‘पिछले हफ्ते ही पतंग लूटने के चक्कर में, जब हम दोनों कटी पतंग का पीछा करते, आसमान की ओर देखते दौड़ लगा रहे थे, तो कंटीले तारों से उलझ कर गिरने से मेरी पीठ में खरोंच आ गया था, और मैं पतंग नहीं लूट पाया। जिससे मेरी उससे कुट्टी हो गयी है। मुझे उससे काम नहीं है। अभी तो आपसे काम है। आपको अम्मा ने जल्दी बुलाया है।’’ उसके पास बस ऐसे ही सीधे-सपाट शब्द थे।
‘‘क्या काम है?’’ दादी जी ने उससे अनमने ढ़ंग पूछा।
‘‘पता नहीं, उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही। आपको जल्दी बुलाया है।’’ उसे अम्मा के दर्द की गम्भीरता का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था।
‘‘ठीक है, अभी तो पूजा-पाठ कर रही हंूॅ। बता देना थोड़ी देर बाद आऊंॅगी।’’ ये कहते वो अन्दर चली गयीं और दरवाजा बन्द कर लिया। वो हताश, मायूस सा अपने घर वापस लौट आया।
वापस घर आकर उसने देखा तो, अम्मा अपने कमरे में नहीं थीं। बदहवास सा वो दूसरे कमरों में भी देख आया। अम्मा वहांॅ भी नहीं मिली। तभी उसने आंॅगन में कुछ कराहने जैसी सुनी। वो आंॅगन की तरफ दौड़ा। वहांॅ उसने देखा कि अम्मा लगभग बेहोशी की हालत में आंॅगन से लगे बॉथरूम में ही लेट गयी थीं।
‘‘क्या हुआ...? दादी जी आ रही हैं?’’ उसके आने की आहट सुन अम्मा ने हल्के आंॅखें खोलते पूछा।
‘‘उन्होंने कहा है कि पूजा-पाठ करने के बाद आयेंगी।’’ उसने निरपेक्ष-भाव, सीधा-सपाट उत्तर दिया।
‘‘अऽरे बेवकूफ लड़के, तुमने उन्हें बताया नहीं कि मेरे पेट में जोर का दर्द हो रहा है? बच्चा होने वाला दर्द। जाओ, उन्हें जल्दी बुलाकर ले आओ।’’ अम्मा ने दर्द से कराहते उसे झिड़का था। अम्मा की इस हिदायत पर वो फिर से भागा-भागा दादी जी के पास पहुंॅचा।
‘‘काऽ है, दहिजरौऽ...कऽ नाती...? ठेकाने से पूजा-पाठ भी नहीं करैऽ देत्यौऽ तुम सब।’’ दुबारा दरवाजा खटखटाने पर दादी जी ने दरवाजा खोलते, झल्लाते, उसे अपने अंदाज में ही झिड़का।
‘‘अम्मा के पेट में बहुत दर्द हो रहा है। उनकी तबियत खराब है। आप जल्दी चलिए।’’ उसकी बेचारगी-लाचारगी ये थी कि उसके पास उपयुक्त शब्दों का अभाव था। उसे मौंके की गम्भीरता का जरा भी भान नहीं था।
‘‘ठीक हैं, तुम चलो। अभी घर में कोई नहीं है। मैं थोड़ी देर में आती हंूॅ।’’ ये कहते, दरवाजा बन्द करते, दादी जी वापस फिर अन्दर कमरे में चली गयीं। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब आगे क्या करना चाहिए? दादी जी के बन्द दरवाजे को थोड़ी देर घूरने के बाद, असहाय सा वो भी फौरन अपने घर की ओर लौटा। इस बार घर लौटने पर उसने देखा कि अम्मा बॉथरूम में ही एक नवजात बच्चे को अपनी गोद में उठाए, उसकी साफ-सफाई कर रही थीं। ये दृश्य उसके लिए आश्चर्यजनक और चौंकाने वाला था। उसने भी बच्चे को अपने हाथों से छूकर देखा।
‘‘एक भगौने में थोड़ा पानी और सूखा कपड़ा ले आओ।’’ अम्मा ने उसे देखते ही हिदायत दी। वो दौड़ कर पानी ले आया। लेकिन, तत्काल उसे घर में कोई सूखा कपड़ा आदि नहीं दिखा।
‘‘अऽरे बेवकूफ लड़के, क्या कर रहे हो? तुमसे सूखा कपड़ा भी तो लाने के लिए कहा था? तुम किसी काम के नहीं हो। अच्छा, दौड़कर तौलिया ही ले आओ।’’ उसे बच्चे को चिकोटी काटते देख, अम्मा ने झिड़का। अम्मा की फटकार पर वो फौरन दौड़ कर, आंॅगन में अलगनी पर टंॅगा तौलिया ले आया, और फिर से उस नवजात को टकटकी लगाये देखने में मशगूल हो गया।
इसी बीच पड़ोस से दादी जी भी आ गयीं।
‘‘अऽरे बहू! ये क्या? तुम्हारा लड़का तो बड़ा ही बेवकूफ है? उसने बताया ही नहीं कि तुम्हें बच्चा होने वाला है? नालायक कहीं का? कह रहा था, अम्मा ने बुलाया है। मैंने जब पूछा कि क्या काम है, तो कहने लगा, अम्मा के पेट में दर्द हो रहा है। तबियत खराब है। इसे बताना चाहिए था कि तुम्हें बच्चा होने वाला दर्द हो रहा है?’’
‘‘इसका दिमाग तो गुल्ली-डण्डा में ही लगा होगा न? बेवकूफ तो है ही।’’ अम्मा ने उसकी तरफ देख आंॅखें तरेरते कहा। खैर...। अब दादी जी ने त्वरित गति से आगे की जिम्मेंदारी संभाल ली थी। अम्मा को आंॅगन में बॉथरूम से उठा कर अन्दर कमरे में ले आयीं।
बाहर कुछ बच्चे पतंग उड़ा रहे थे। वो बाहर बरामदे में जाकर बैठ गया, और पतंगबाजी देखने में मशगूल हो गया।
पर अगले कुछ पल बाद ही उसकी मांॅ के पेट में फिर से तेज दर्द उठा।
‘‘ऐ बेवकूफ लड़के! जाओ, दौड़कर पानी और सूखा कपड़ा ले आओ।’’ दादी जी ने अम्मा के कमरे से बाहर आकर उससे फौरन पानी के साथ कुछ और सूखे कपड़े मंगवाए।
‘‘लेकिन दादी जी, अब किसलिए चाहिए, पानी और कपड़ा?’’ उसने चेहरे पर आश्चर्य-भाव लाते पूछा।
‘‘अऽरे बेवकूफ लड़के! तुम नहीं समझोगे। एक और बच्चा है, तुम्हारी मांॅ के पेट में। जल्दी जाओ, पानी और सूखे कपड़े ले आओ। जितना कहा जा रहा है, उतना सुनो, और करो।’’ ये सुनते...उसके तो आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा। दादी जी की इन झिड़कियों का उस पर तीव्र असर हुआ। उसने आगे सवाल नहीं किये, और दौड़ कर, एक बाल्टी में पानी, और आंॅगन में सूख रहा दूसरा तौलिया लाकर दादी जी को दे दिया। ये सब सामान लेकर, दादी जी ने अम्मा के कमरे को एक बार फिर, अन्दर से बन्द कर लिया।
‘‘बहू के, जुड़वा बच्चे पैदा हुए हैं।’’ थोड़ी देर बाद ये कहते, दादी जी एक और नवजात शिशु को अपने हाथों में लिए कमरे से बाहर आयीं। दादी जी के इस खुलासे पर, वहांॅ उसी मध्य पड़ोस से आयीं बैठी, बाकी औरतें दांॅतों तले उंॅगलियां दबाते, उन नवजात शिशुओं को स्नेह-भाव निहारते, पुचकारने लगीं। उसके बाकी भाई-बहन भी पूरे घर में भंकुआए से घूमते, कभी एक बच्चे को देखते तो कभी दूसरे को।
अब दोनों बच्चे, उनकी मांॅ के पास लिटा दिये गये थे। तब-तक उसके बाकी भाई-बहन भी उन नवजात शिशुओं के इर्द-गिर्द इकट्ठा हो चुके थे। वो भी अपने भाई-बहनों संग उन बच्चों को टुकुर-टुकुर देखता रहा।
दादी जी ने दोनों नवजात शिशुओं को अच्छी तरह धो-पोंछ कर सूखे कपड़े में लपेटते, उन्हें उनकी मांॅ के बगल ही लिटा दिया। घर उन शिशुओं की किलकारियों से गंूॅज उठा। इसी बीच आस-पड़ोस के अलावा, कॉलोनी की और भी महिलाएं घर में जमा होने लगीं थी।
‘‘अच्छा बच्चों देखो, अब तुम लोग अपनी अम्मा को परेशान मत करना। उन्हें आराम करने दो। और इन बच्चों को भी मत छूना। ये पहले वाली तुम्हारी बहन है, और दूसरा वाला तुम्हारा भाई है।’’ दादी जी ने उसे और उसके भाई-बहनों को ये कड़ी हिदायतें देते कहा।
दादी जी, ये हिदायतें देने के बाद अपने घर जाने के लिए निकलीं ही थीं कि बाहर उसके पिता की फटफटिया की आवाज सुनाई दी। पिता को आया देख कर वो फौरन भाग कर घर के बाहर आया, और एक ही सांस में अपने पिता से सारा वाकया कह सुनाया। पिता ने भी, उसके मुंॅह से ये सारी बातें सुनकर फौरन अपनी फटफटिया बाहर ही स्टैण्ड पर खड़ी की और भागते हुए अन्दर कमरे तक आये। दोनों नवजात शिशुओं को बच्चों की मांॅ के बगल में लेटे देख, उनके चेहरे पर भी हर्ष-मिश्रित आश्चर्य के भाव आ गये। उसे याद है, अगले दिन पिता जी अम्मा को लेकर अस्पताल गये थे।
‘‘अंकल जी, बेटी हुई है।’’
लेबर-रूम के बाहर, बरामदे में पड़ी बेंच पर बैठा वो अभी इन्हीं विचारों-यादों में खोया हुआ था कि पीछे से नर्स ने आकर उसे ये खबर दी। उसकी तन्द्रा भंग हुई। ये खुश-खबरी सुनकर वो अपनी बेटी को देखने के लिए बेताब हो उठा।
वो अब बेसब्री से पत्नी के लेबर-रूम से बाहर आने का इन्तजार करते, अपनी उंॅगलियों के नाखून चबाते बरामदे में चहल-कदमी करने लगा।
‘‘अऽरे! ये तो बिलकुल परी जैसी, गोल-मटोल है? इसका माथा तो देखो, कितना बड़ा है?’’ पत्नी के लेबर-रूम से बाहर आते ही वो झट, पत्नी के बेड तक पहुंॅचा, और बगल में लेटी बच्ची को देखते, उससे लाड-प्यार जताने लगा।
‘‘हांॅ! और डॉक्टरनी जी ये भी कह रही थीं कि ‘पूरे सवा तीन किलो की है। बड़ी बुद्धिमान होगी आपकी बिटिया।’ चलिए...कम-अज-कम आपकी तरह बेवकूफ तो नहीं होगी।’’ पत्नी ने आगे जोड़ा। वो जानता था, पत्नी ने ये बातें मजाक में ही कही होंगी, सीरियॅसली नहीं? फिर तो, दोनों फिस्स् देना मुस्कियाये बिना नहीं रह सके।
आखिर...उस बेवकूफ लड़के के घर, एक बुद्धिमान बिटिया का आगमन जो हुआ था।